Thursday, December 31, 2015

बाड़ा



उसने मुझे बरसों मजबूर किया
बाड़ेमें जीनेके लिए
मैंने कभी उसका विरोध नहीं किया
आज समयके शिलालेख पर
मेरी उच्छ्रंखल अभिव्यक्तियाँका आलेखन देखकर  
वह कहता है तेरी कविता एक बाडा है
मैं निष्पलक
उसके चेहरे पर फैलती नागफनी देख रहा हूँ.

मैं अगर सहरा होता
कम से कम उसका उच्छ्श्वास मुझे इतना जला सकता था
और बांझ  मरीचिका मेरी कोखमें  उगा सकता था.

या जहरीला बदबूदार दूध होता,
उसकी नसनसमें बेझिझक बह सकता था अनंत  
और सबका खून लाल है
उसके क्षणजीवी सबूत इकठ्ठे करनेकी माथापच्चीसे बच जाता.

लेकिन मैं बना इंसान,
उन्नत मस्तक .
आकाश और पृथ्वीके बीच विस्तीर्ण फैले
शून्यको चीरती आवाज़,
इंसान, जिसके रूदनसे वह भयभीत हो गया और
हास्यसे क्षुब्ध.

बाडाबन्दीके खिलाफ मेरी लडाईको
वह समझा अपने अस्तित्वके विरुद्ध ललकार
और उसने दुबारा मुझे कैद किया बाडेमें.

नागफनीको साफ़ करनेके लिए उठे मेरे हाथको

अब मैं कैसे कहूँ,  ‘ठहर जा, इन्सानके खातिर’?

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