गाँव गोरा आँजनाका कालिया ढेड़ ही नहीँ
गाँव गढ़डाका भटा गौर भी मेरा भाई है.
ऋषिओ, मैं ऋत और सत्यके मार्गका यात्रिक नहीँ हूँ.
रगोंमें दौड़ते रक्तका मैंने एक ही रंग देखा है और वह है लाल.
रोटी बगैर हिज्राते व्यक्तिकी पीड़ाके स्थल और कालमें एकसमान ही परिणाम प्रगट हुए हैं.
जिनके रोम्ररोमको चुभती सर्दीने फटी हूयी गुदडीओंके वर्ण कभी देखे नहीँ है,
ऋषिओ,जिन्द्गीकी दिवारमें मैं पाप-पूण्यके छिन्दे नहीँ कर सकता
मुझे महज इंसान होनेका ही आघात प्राप्त नहीं हुआ है
दो साल पहले ऊटीकी टूरमें एक जैफ चाचाने कहा था
‘बेटा,उपरसे कुछ नहीं आता.
बारिशके बादल भी बनते हैं समंदरके पानीसे.
..सबसे पहले थी धरती.’
दूरसुदूरके पहाड़, नदी, मुल्क लांघकर
उस धरतीकी सुगन्ध मेरी खिड़की पर आकर बैठती है.
मृत्युकी दाढ़में जकड़ी हुई
दूर, वहाँ, बालविधवा पृथ्वी
बाँझ अवकाशमें
आक्रन्द कर रही है
मेरी रूकी हुई श्वासमें
मिल जाता है उसका रूदन
उस रूदनमें तैरता है एक चेहरा, मेरे मृत पिताका.
एक गाँव गोरा आँजनाका कालिया ढेड़ ,
एक गाँव गढ़डाका भटा गौर.
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