Thursday, December 31, 2015

मैं तेरी ही राह देख रही हूँ



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मैं तेरी ही राह देख रही हूँ.
मेरी उपेक्षा मत करना
मुक्तिके प्रभातकी एकाध किरन मुझे भी देना. 
मानव सभ्यता फूली
पुनीत सरिता तट पर
तबसे मैं तेरी राह देखती हूँ
जैसे देखती थी
शिकारको गये मेरे साथीकी
फेरते धीरेसे कंगी
धरतीके मृदु मस्तक पर.
कृषिकर्मकी जन्मदात्री मैं,
स्वयं धरित्री.
धरा एकपतिव्रत
फिर भी करना पड़ा अग्निप्रवेश 
पांच पतिकी संगिनी
हिमालयमें देह गला .
मैं शूद्रातिशूद्र 
पापयोनि
गीताकार या भाष्यकार
सब जगह मैं नरककी  खान
क्वचित हुयी गार्गी या कभी मैत्रेयी 
अहल्या हुयी हमेशा
खायी पुरुषकी ठोकर.
मैं तन्त्र विज्ञानकी माया 
गान्धर्वलोककी अप्सरा
इन्द्रसभाका मनोरंजन
वत्स्यायनकी कामक्रीड़ाके लिए
हुआ मेरा सृजन.  
बंधु, दास होकर तुमने
सेवा की आर्यस्वामीकी/
तुम्हारे समीप मैं ही थी
अनौरस संतानोंकी माता
शूद्र, क्षुद्र , तुच्छ माता.
आज तेरे मेरे संतानोंकी निकली है
विजययात्रा  एक नया विश्व रचनेके लिए
विश्व समानताका
स्त्री-पुरूष भेद बगैरका.
मैं खड़ी हूँ कोनेमें
घरकी चार दीवारोंमें.   .
आ, पकड़ मेरा हाथ
मुझे भी भुगतने दे

मुक्तिकी प्रसववेदना.  

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