कविता लिखना सरल है मेरे लिए.
वह आती है उड़कर मेरी नन्हीमुन्नीके सपनेमें
आ पहुँचती कोई एकाकी परीकी तरह .
मुझे कोई बासी रोमांच नहीँ होता
वीडीयो पर टिकटीकी लगाकर ब्लू फिल्म देखते
आलसी बिगड़े हुए बेटेको होता है ऐसा.
या तो कविकी भाषामें कहूं तो
फुटपाथकी धार पर पड़े गू पर भिनभिनाती मख्खीको होता, हो ऐसा.
हाँ, वह आती है तब
अवश्य होता है ऐसा अनुभव
गीच चालके तंग
कमरेमें
समयको क्वचित ही प्राप्त
ताज़ा हवाके स्पर्शका.
चूँकि मुझे पड़ते हैं मेरे
विचारोंको
हवामें उड़ती रद्दीको संभालकर बीनती
स्त्रीयोंकी ममतासे,
जो बैठी हुई होती हैं आस लिए उरमें
हमेशा
शामके खानेकी फिक्रमें.
उन्हें उससे भी विशेष चिंता रहती है
कि हथिया न ले कहीं
उनकी मेहनतकी कमाई
कबसे कोनेमें घोरता जंगली पियक्कड़
‘परमेश्वर.’
वैसे ही मैं राह देखता हूँ कवितामें
मेरे इतिहासके वीरनायकोंकी, प्रतापी पूर्वजोंकी.
चिंताग्रस्त होता हूँ उसी वक्त
रास्तेसे गुजरती हरेक मोबाइल वानकी तीव्र सायरनसे
दरवाजे पर दस्तक सुनकर
मैं निरर्थक चेष्टा करता हूँ
मेरी अंतिम पांडुलिपियाँ
मेरे देहमें छूपानेकी.
तब पता चलता है
कविता लिखना
इतना सरल नहीँ है मेरे लिए.
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