Thursday, December 31, 2015

दो पांव पर चलना ही बड़ी बात थी


                                                                    
तुम आये, हमें गुलाम बनाया,
लेकिन क्या इतिहास कभी इतना सरल होता है?
तुम आये होंगे अश्व पर या लड़े होंगे लोह्से
विकासके हर सोपान पर क्या पीड़ा ही पीड़ा है?

हमें पूछने दो अनजान भयावह अतीतसे
जिसका  वर्तमान भी उसी तरह डरावना है.
क्या मनुष्य द्वारा मनुष्यकी गुलामी तय ही थी?
हम भी उतने ही उमंगसे  नाचे थे
पूजा कि थी गूढ़, अर्थगर्भ शिवलिंगकी
जहां  प्रश्न  प्रारंभ होते हैं और तर्क निरुत्तर हो जाते हैं
ऐसे अज्ञात प्रदेशका हमें भी खौफ था.
शायद तुम्हारा परमकृपालु हम पर भी करुणावर्षा कर सकता था
दे सकता था हमें
एक छोटीसी नाव  इस मानवसर्जित विपदासे बचनेके लिए .
लेकिन  उसका द्वार खुला ही नहीँ, जो अनिवार्य था.
हम पिरामीडके  पाषाणोंके बीच पसीना बहाते रहे
भयभीत होते रहे समन्दरके  तटपर लंगरसे बंधे जहाजोंसे.
अलग होते रहे माता, भार्या और प्राणसे भी प्यारे बच्चोंसे
बीकते रहे विदेशी प्रदेशोंमें
जहां रक्तसम्बन्ध सहज हुए मनकी किसी भूमिकाके स्पर्शके बगैर
हमारे आकाशमें कभी इन्द्रधनु आये ही नहीँ
बाद्लोंकी अनन्त पंक्तियोंको देखकर हमारे दिलके तार कभी  झंकृत हुए.
पीडाके बोज तले दबी वाचाको कभी कविके शब्द स्फुरित हुए.
स्वर्गके सुखकी कल्पना पर नहीँ, हमारी आयुकी गाँठ बंधी रही
केवल जिजिविषाके तार पर.
शोषण, अन्याय, दमन इन शब्दोंकी किसे सुध थी

दो पांव चलना ही बहुत बड़ी बात थी.

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