Thursday, December 31, 2015

गुजराती



गाँव बीच
हाट लगाकर
बैठा बालिश गुजराती
नाम पूछता है
जात पूछता है
कोम धर्म
तिलक त्रिपुण्ड संग
एक एक अंगकी पक्की पहचान सूंघता है.
प्रभातका महिमा गाती रात चलती है
और पूरवमें सूरज उगता
अंबाजी पधारती हैं रूमझूम
अतीतके तट द्वारिका
सुवर्णमय होकर गाती.
रामराज्यका रस पिलाते
मा’त्मा पोरबन्दर पधारते है
दसों दिशाके दिकपाल
फ़ौरन ही केकारवमें कूजते है.
अहा, क्या संजोग  हुआ है!
गाँव बीच
जनेऊ डाले
बैठा बम्मन गुजराती
निरुद्देश जिसने आजतक
नेपथ्यभ्रमण किया
रसधारकी भ्रमणामें
कुछ पुराना  ही पिया
पर-धरतीका पवन पिया जिसने
एबसर्डीया लिया
टेंकत फैंकत भाषा भसता
पूरा सडा.
फिर भी निजानंदी, मस्त मिजाजी.
गुजराती हंसता है

ब्रिटीश इंडियाका बेजोड़ म्युझियम
हमने यहाँ बनाया
हल जोते थे अगरोंके
और टेंक ढकेलकर कीचडूक कीचडूक
ताराज किया था
तेलंगाना
की थी हमने सरदारी.
भारतमाताके चिथड़ा मस्तक पर
कैसी शान रचाई थी.

गाँव बीच
जात बेचकर
बैठा मक्कार गुजराती
मख्खीचूस
बड़ा कंजूस
दामके पीछे पड़ा
देस-परदेस व्यापार किया
पीता खून-पसीना
(तानता कैसे सीना!)
‘छोटा जन है सब
भद्रता नहीँ
संस्कार नहीं
शील नहीँ.
छट! तामसी, उत्पाती. ‘
कहता है कमीना महाजन
तुरंत दान और महापुण्यके
परमारथसे भीगा.
बीच गाँव
लात खा कर बैठा
बावरा गुजराती
देखा करता दिन रात
जैसे जनमसे है काना
मुरलीवाला या बकरीवाला
मोहनको पकड़कर ले  आना
धरमके माथे विपदा पडी है
अब रहूँगा न में सयाना
गुजरातीकी बात करू
पर जात बिरादरी है अव्वल.

बीच गाँव
जात पूछकर
बैठा नाचीज़ गुजराती
भरतार मरा है उसका
फिर भी भाषा हमारी
संस्कृतसे जो आयी  
वानरसे ही पुच्छ बीना
मनुष्य है आया
पीछे हटना
मुश्किल है अब
फिर भी
धरम करम और भाषा भरम के
ताने यहाँ बुनते जाते
बीच गाँव
गांड बगैरका
लोटा एक
दड दड ...
       दड दड ...

               ददडता...

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