औरोंकी भूलके लिए
खुदको कोसता रहा
जिंदगीभर मेरा
समाज.
सशक्त और हताश
व्यवस्थाका
पौलादी चक्र और अपाहिज.
स्वयं शेषनाग
फिर भी ऋणबोजसे
कुचला गया
पूज्य उसके ही
पाँव थे
वह धूर्तोंकी
चरणरज लेता रहा.
एक मुलकसे दुसरे
मुलक
वह अथ्दाता रहा.
उसकी शाश्वत
हिजरतको कहीं मक़ाम न मिला.
और लोग देते
रहे उसके अस्तित्वके फैसले
इसीके चलते ही वह
नफ़रत करता रहा खुदसे
वह ख़ुदगर्ज न था
खुद्दार न हो
पाया.
भीतरसे सड़ते चले
विशाल वृक्षका
अवशेष बन कर रह
गया.
आज़ार और आतुर
मेरा समाज.
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