इसीलिए तो हम कहते हैं भाई
ये ढेड़ कभी मानेंगे नहीं
उन्हें तो करना पड़ेगा सीधा
वे तो मुलकके चोर.
देखो कैसी महान, शीलवंती है संस्कृति
हमारी
जहां जीवनके नाजुक सवाल सुलझते है
नियोग जैसी प्रथासे.
सुन्दर,मनोहर भारतवर्ष सयाने साधू
संतोंका
जहां गोवर भी पवित्र
नाग,साँप,गाय,बैल,भेड़,बकरे ..
हम तो सबका पूजन करते हैं प्रेमसे
उसमें यह नूगरे- नालायक
पूर्व जनमके पापी
कुत्ते,बिल्ली,घोड़े,गधेसे भी गिरे
नीच वर्णके लोग
हमारी कंचन जैसी कयाको अपवित्र करें
हमरी बचीखुची आचार शुद्धिको ठेवे चादावे
उन्हें कोई न रोके, न टोके
और उपरसे काला कायदा उन्हें ढेड़ कहनेसे हमें रोके
कैसा सरासर अन्याय.
वाणी स्वातंत्र्यके
नाम पर
इस बिगड़ी हुई वर्णसंकरने
कैसा कलजुग आया रे!
हम तो रहे भले-भोले-भावनाशील
नहाना क्या, निचोना क्या?
बहुत हो जाय तो कर देते हैं दरवाजा बंद
या अखबारके चीथड़ेमें मीठे गुड़में विष घोलते है,
हो सके तो કોથળામાં
પાંચશેરી મારીએ
और वह भी तो ठीक है न कि
आगे हो पहचानी अटक ,और पीछे बापका नाम
(गर बहुत विचारवायु होता है तो देखते हैं
ब्लड ग्रुप तमाम
या दरपनमें थोबड़ा लटका कर
देख लेते हैं:
क्या क्या विरोधी , क्या क्या समान ?)
उससे विशेष होता है हमें कुछ ज्ञान ?
है न सुखभरा सज्जनों, हमारा अज्ञान ?
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