Thursday, December 31, 2015

गड्डा



मेरी माँ है सीधी सादी कामवाली
पराये घर जिस साधनसे वह कपडे धोती है
उससे कुछ ही बड़े साधन लेकर
दो इन्सान एक मैदान पर
यहाँ से वहाँ दौड़ लगाते रहते हैं.
उनको देखनेके लिए  इकठ्ठी हजारोंकी भीड़
सर्कसके प्राणियोंकी तरह इशारे करती रहती है

इतिहासने सीखाया था
बाबूलोग ढाईसौ साल राज करके चले गये
पीछे छोड़ गए उनकी हगार .

आज मुझे कोई पूछता नहीँ है
कि बेटा, तेरे और तेरी माँके पेटका गड्डा
क्या इस  स्टेडियमके गड्डेसे भी गहरा है

की कभी भरा ही नहीं जाता ?

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