Thursday, December 31, 2015

मार्क्स










उसने प्रथम बार एक निष्पक्ष विज्ञानमें 
पूर्वग्रहके बीज बोये.
दुनियाकी एक असहाय अल्पमतको शोषकका बिरूद मिला.
सम्वेदनाविहीन कसाई, दम्भी बिल्लियाँ
सबके लिए ऐसा मानवीय प्रकोप यकायक ,
पीड़ादायक हो गया .

प्रकृतिके कार्योंमें यह सीधा हस्तक्षेप था.
पृथ्वी अब गायके मूत्रसे पैदा होनेवाली न थी.

देवता फूलोंके इर्दगिर्द मंडरातीं मधुमक्खीयों जितने भी उद्यमी न रहे.
धीरेसे वराहावतार और मनु वैवस्वत
बालकोंकी किताबोंमें आश्चर्यचिह्न बन कर रह गये.

वह कूटप्रश्नथा बुद्धिहीन लालचीओंके लिए.
वह जूठा था एकाक्षी जादूगरसे सम्मोहित दर्शाकोंके लिए.

बारबार  केंचुल बदलते सांपको खीँच जानेके लिए
सहसा उमट पड़ा
लाल चींटीयोंका लश्कर.

गांड न धोनेकी दाहिने हाथकी प्रतिज्ञा पीघल गयी.
बाढ़ अब मानवसर्जित हुयी और चक्रवात
राजसत्ताके कारस्तान.
जहां सत्य बन गया एक पारदर्शी पीड़ा,
नग्नता बाख गयी सिर्फ मंदिरोंके शिल्पमें.

बेवकूफ महाराजाओं और विश्वविजयकी घेलछासे बाहर निकलकर
इतिहासने घोषणा कि:
“हरएकसे उसकी शक्तिके मुताबिक़,

हरएकको उसकी जरूरतके मुताबिक़.”

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