कबसे चुपचाप
उसकी बालसहज चेष्टायें
देख रहा हूँ.
कभी वह हंस देता हे रोते रोते
तो कभीकभी हँसते हँसते रो देता है.
कभी उसकी आँख लग जाती है बैठेबैठे
तो कभी वह उठ बैठता है नींदसे.
कभी चढ़नेके लिए बनाता है मेरी पीठको सीड़ी
तो कभी मुझे नीचे गिरानेके लिए पांवसे पाँव भीड़ा देता है.
कभी कभी नाकके बहाव पर
मस्तीसे जीभ फेरते बच्चे जैसी खुशाली झलकती है उसके निस्तेज
चेहरे पर
जब वह मुझे ढेड़ पुकारता है.
शायद उसे अपनी ही विष्टामें उंगुलियाँ फेरते बच्चेसे भी
ज्यादा आनद उस वक्त आता होगा.
मुझे नहीँ मालूम.
मैं इतना तो जरूर जानता हूँ
उसको सुधारनेकी मेरी तमाम कोशिशोंके विरूद्ध वह जबरदस्त
विद्रोह पुकारता है.
बस, वैसे ही
जैसे वह बालक
अपनी चड्डी कोनेमें फैंककर
चला जाता है
घरसे बाहर
पाँव पटककर
रोषसे!
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